मैं सोंचने लगा कैसे किसी को छोटी सी चोरी मात्र के लिए
मार कर पैर तोड़ा जा सकता है? कैसे हम इतने असंवेदनशील हो सकते हैं? अब ये
सब सुनकर तो वहाँ से जाना मेरे बस का नहीं रहा और शायद किसी भी संवेदनशील
व्यक्ति के लिए ये सब जानने के बाद अपने आप को उन परिस्थितियों से अलग करना
मुश्किल होगा। अब मैंने सोच लिया कि उनको देखकर ही यहाँ से जाऊँगा।
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✍️ राघवेंद्र तिवारी
अभी
कुछ दिन पहले मैं ड्यूटी के लिए सुबह 9 बजे रूम से निकला और कुछ दूर जाने
के पश्चात मुझे कुछ ऐसा देखने को मिला जो समाज में एक बर्बर भीड़ की बढ़ रही
मानसिकता की क्रूर तस्वीर प्रस्तुत करता है। अक्सर मैं पैदल ही ड्यूटी जाता
हूँ जो कि करीब दो किलोमीटर की दूरी पर है तो रोजाना लगभग चार किलोमीटर का
चलना भी हो जाता है।
उस दिन रास्ते में मुझे कुछ लोग
एकत्रित दिखे जिसके अगल-बगल में कुछ छोटे-मोटे उद्योग और बड़ी-बड़ी इमारतें
थी। क्योंकि मेरा उधर से हमेशा जाना-आना रहता है और उस जगह पर बहुत शांति
रहती है इसलिए लोगों का हुजूम देख मुझसे रहा नहीं गया, कुछ अलग और अजीब सा
लगा तो खिंचा चला गया। वहाँ खड़े कुछ मध्य या निम्नमध्यवर्गीय दिखने वाले
लोग हो-हल्ला मचाए हुए थे, पूछने पर उन्होंने बताया की दो चोर पकड़े गए हैं,
उन्हीं को सामने वाले कमरे में बन्द किया गया है। वो लोग ये भी बताए कि ये
बहुत ही शातिर चोर हैं, पहले कनेक्शन काटते हैं फिर कैमरा दूसरी तरफ मोड़
देते है जिससे कुछ भी दिखाई ना दे। उसके बाद ये सब एक-एक करके अंदर प्रवेश
करते हैं और चोरी करके चंपत हो जाते हैं। वो बता तो ऐसे रहे थे जैसे कोई
चोर ना पकड़ के किसी खूंखार डाकू को दबोच लिया हो।
लोगों
की अभी तक की बातों से एक बात जो समझ में नहीं आई वो ये की वो इतने शातिर
और चालाक हैं तो फिर कनेक्शन काटने के बाद कैमरा क्यों घूमाते हैं और यदि
कैमरा घुमाने से काम हो जाता है तो कनेक्शन क्यों काटते हैं, और दूसरी बात
कि जब वे इतने शातिर हैं तो यहाँ क्या चोरी कर रहे हैं? यहाँ तो कुछ भी
बहुत बड़ा हाथ लगने वाला था नहीं क्योंकि यहाँ तो छोटे-छोटे उद्योग और
बिल्डिंगे हैं जहाँ लोगो की मौजूदगी भी हमेशा रहती है, आखिर यहाँ क्या
मिलता? मैं एक मिनट के लिए यही सब सोचने लगा।
ये सब
सुनने के बाद मैं उनको देखने के लिए बहुत उत्सुक था जिनके बारे में वहाँ
खड़े लोग उत्साह से बताते न थक रहे थे। लेकिन वहाँ स्थिति ऐसी नहीं थी कि
कोई भी कुछ सुनने को तैयार हो। कुछ लोगों से बात करके रिक्वेस्ट भी किया कि
भाई एक बार उनको देखना चाहता हूँ जो इतने बड़े-बड़े कारनामे करते हैं। एक
बार दिखा दो कि वो दोनों कहाँ हैं लेकिन
किसी ने
नहीं सुना, फिर मुझे ड्यूटी के लिए लेट भी हो रहा था, तो सोचा चलो ये सब तो
होता रहता है ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है।
यही
सब दिमाग मे चल रहा तभी किसी ने मेरा नाम पुकारा, आवाज सामने की छत से
मेरे एक दोस्त के पिताजी ने दी थी। वो भी छत पर खड़े होकर यही सब देख रहे
थे, मैं भी उनको नमस्ते बोला और वहाँ से निकलने लगा। जैसे ही वहाँ से 10
कदम आगे निकला तबतक किसी ने बोला कि उसका पैर टूट गया है, ये सुनते ही मेरे
दिमाग मे कुछ अजीब सा चलने लगा, मैं सोचने लगा उसका पैर कैसे टूट गया? मैं
उन लोगों के पास गया जो ये बातें कर रहें थे, मैंने उनसें पूछा भाई उसका
पैर कैसे टूट गया है? उन लोगों को भी बहुत सही जानकारी नहीं थी, इतना जरूर
बता दिए कि उनको मार पड़ी है और पैर टूटा है, ये नहीं पता कैसे टूटा है, हो
सकता है उनको पता भी हो पर मुझे बताना सही नहीं समझे।
ये
सब सुनने के बाद मैं सोंचने लगा कैसे किसी को छोटी सी चोरी मात्र के लिए
मार कर पैर तोड़ा जा सकता है? कैसे हम इतने असंवेदनशील हो सकते हैं? अब ये
सब सुनकर तो वहाँ से जाना मेरे बस का नहीं रहा और शायद किसी भी संवेदनशील
व्यक्ति के लिए ये सब जानने के बाद अपने आप को उन परिस्थितियों से अलग करना
मुश्किल होगा। अब मैंने सोच लिया कि उनको देखकर ही यहाँ से जाऊँगा। थोड़ी
देर तक वहाँ रुकने के बाद मुझे पता लगा कि उनको वही पास के एक कमरे में बंद
करके बाहर से ताला लगाया गया है। आश्चर्य तो तब हुआ जब ये पता लगा कि उनको
5 बजे से ही बन्द किया गया है और अभी 10 बजने को थे तो उनकी दिनचर्या के
बारे में भी सोचने लगा कि वो दोनों मल-मूत्र भी क्या उसी कमरे में कर रहे
होंगे? क्या किसी ने उनको नित्यकर्म के लिए बाहर निकाला होगा?
मैं
जुगत लगाने लगा कि उनसे कैसे मिला जाय, मैं उस व्यक्ति के पास गया जिसके
पास चाभी थी और उससे कुछ बातें करने के बाद मैंने कहा कि एक बार उनको देख
लिया जाए नहीं तो कही कुछ अनहोनी हो गयी तो आपको ज्यादा दिक्कत हो सकती है।
एक बार देखकर फिर बन्द कर दीजिएगा, इतना समझाने पर वो तैयार हो गए और मैं
भी उनके साथ हो लिया। मुझे उन सब से मिलना था इसलिए थोड़ा डरा कर ही सही
लेकिन ताला खुलवा लिया। जैसे ही कमरा खुला और फिर जो आँखों ने देखा उसे
यकीन करना मुश्किल हो रहा था। जिन चोरों की कल्पना मेरे दिमाग मे चल रही
थी, वहाँ पर उपस्थित लोगों की बातें सुनने के बाद सच्चाई मेरे सामने उससे
बिल्कुल विपरीत थी। असल में वो दो मासूम बच्चे थे, आँखों मे आंसू, शरीर पर
चोट के निशान, और डरा हुआ सा चेहरा, लगा जैसे वो उनके साथ हुए वाकये की
कहानी बयां कर रहा हो।
बाहर खड़े आदमखोर लोग जो कुछ भी
बताए थे वो सब मैं एक झटके में भूल गया और उन बच्चों के पास गया और प्यार
से पहले उनका हाल पूछा। बच्चे इतने डरे हुए थे कि कुछ भी बोल नही पा रहे
थे, कई बार पूछने पर एक लड़का जिसने अपनी उम्र 11 साल बताई उसने कहा कि
प्यास लगी है, वहाँ पानी तक नहीं था कि वो पानी पी सकें। मुझे बहुत गुस्सा आ
रहा था इन क्रूर लोगों पर लेकिन गुस्सा करने से कोई फायदा नहीं था।
मैंने
वहाँ खड़े कुछ लोगों से विनती की कि आप लोग यहाँ से थोड़ा दूर जाइए और हो
सके तो थोड़ा पानी ला दीजिये फिर जो करना होगा कीजियेगा इनके साथ। मैं सोच
नहीं पा रहा था कि कैसे हो गए हैं लोग! सामने कोई प्यासा है और पानी तक
नहीं दे रहे, एक नौजवान जो उसी रास्ते से अपने काम पर जा रहा था वो भी रुक
कर हमारी बातचीत सुन रहा था, उसी ने अपने बैग से एक पानी का बोतल निकाला और
उन बच्चों को पिलाने के लिए दिया। दोनों ने पानी पिया और फिर सब कुछ बताने
लगें जो उनके साथ हुआ और जो उन लोगों ने किया था। दोनों की उम्र लगभग
बराबर ही थी एक ने तो पहले ही 11 वर्ष बता दिया था दूसरे ने भी अपना 13
वर्ष बताया। सामान्यतः इस उम्र के बच्चे मां की ममता और पिता के प्यार की
छांव में घूमते-फिरते, खेलने-कूदने और पढने में ही समय देते हैं पर इसी
उम्र में ये बच्चे चोरी के लिए पकड़े गए हैं। दोनों ने बताया कि हम लोग
कूड़ा-कबाड़ घूम-घूम कर उठाते हैं और जब बेचने भर का इकट्ठा हो जाता है तो
उसे बेच देते हैं। इससे जो पैसा मिलता है उसमें से कुछ हम खर्च करते हैं और
जो बचता है घर पर दे देते हैं। उनके घर के बारे में पूछने पर उन्होंने
बताया कि कॉलोनी के पीछे झुग्गी बस्ती है उसी में रहतें हैं। मैंने पूछा
पढ़ने जाते हो तो जबाब मिला कि हम लोग कभी स्कूल नहीं गए।
ये
सब सुनने के बाद मेरे दिमाग में उनकी झुग्गी-बस्तियाँ तैरने लगीं, चारो
तरफ गंदे नाले, उसमें पौराते सुअर और कुत्ते, इधर-उधर पड़ा कचरा जिनको
कुत्ते और सुअर और बिखेरते रहते, चारों तरफ तिरपाल से बनी झुग्गियों के बीच
रहने को मजबूर, पीने के साफ पानी तक कि व्यवस्था नहीं, ऐसी परिस्थिति में
रहने वाले दों मासूम बच्चों से हम क्या उम्मीद कर रहें हैं? सभ्य-सुसंस्कृत
लोग अच्छे इसलिए हैं क्योंकि उनके पास सभ्य बने रहने के संसाधन हैं। जिनकी
ज़िन्दगी बोझ लगने लगी हो, जिनके दरवाजे पर सुबह शाम भूख पहरा देती हो,
शिक्षा जिनको देखकर दूर से ही नाक-भौं सिकोड़ लेती हो उनसे आप किस सभ्यता,
नैतिकता और संस्कृति की आशा कर रहे हैं? हम हमारे समाज और व्यवस्था की
नाकामियों को क्यों दुसरों पर थोप रहे हैं? सरकारें आती हैं और जाती हैं,
चेहरे बदलते रहते हैं लेकिन जो नही बदलती है वो मेहनतकश और गरीबों की
ज़िंदगी। जिन सुविधाओं के लिए तमाम तरह की योजनाएं चलाई जाती हैं वो इन लोगो
तक क्यों नहीं पहुँचती, हम ये बात क्यों नहीं सोचते कि भूखे पेट किसी को
भी ज्ञान देने से कोई फायदा नहीं है।
यही कुछ सवाल
मेरे जेहन में चल रहे थे। फिर मैं उनसे कुछ और बातें करते हुए मुख्य बात पर
आया कि तुम लोग और क्या-क्या करते हो, इस बात पर उन दोनों ने बड़ी ईमानदारी
से बताया कि हम लोग घूमते-फिरते छोटी-छोटी चोरी भी कर लेते हैं। दोनों की
बातों में सच्चाई दिख रही थी। बाहर खड़े लोगों ने इन बच्चों पर जिन चीजों की
चोरी का इल्जाम लगाया था उनमें एक भरा हुआ गैस सिलेंडर था और एक 35kg की
डाई (जो घरों में उपयोग होने वाली चलनी बनाने के लिए यूज़ की जाती है) ले कर
गए हैं। जबकि पीछे के रास्ते से जहाँ से ये सब चोरी हुआ बताया जा रहा, 8
फिट ऊँची दीवाल है औऱ कोई गेट भी नहीं है। 8 फीट की दीवार और 30 से 35 kg
का सामान, दो बच्चे ये कैसे निकाल सकते हैं? चोरी हुई हो या ना हुई हो पर
इन्होंने इन बच्चों को पकड़ कर इतना मारा है कि पैर टूट गया है, शरीर पर
जगह-जगह चोटें लगी हैं, अब आगे की कार्यवाही से बचने के लिए और बाहरी
लोगों का समर्थन लेने के लिए ये लोग झूठी कहानियां गढ़ रहे हैं। उन बच्चों
ने बताया कि हम लोग पहले भी यहाँ आते रहे हैं गत्ते और प्लास्टिक बीनते
हुए, आज भी वही कर रहे थे, ऊपर दीवाल पर कुछ कबाड़ था तो हम दोनों वही उठाने
के लिए ऊपर चढ़े थे तभी ये लोग पकड़ लिए और पहले के चोरी हुए बहुत से
सामानों के बारे में पूछने लगे। किसी भी सामान के बारे में हम लोगों को कोई
जानकारी नहीं थी। छोटे लड़के ने आगे बताया कि ये लोग हमसे पूछ रहे हैं कि
अपने बॉस या मालिक का नाम और पता बता दो, तुम दोनों को छोड़ देंगे। मैंने झट
से कहा तो इसमें दिक्कत क्या है बता दो और तुम लोग चले जाओ। लड़के ने धीरे
से कहा हमारा कोई मालिक नहीं है, हम लोग अपने खर्च के लिए काम करते हैं, घर
पर माँ और बहन हैं, हमारे पापा नही हैं। जो 11 साल का लड़का था उसका पैर
टूटा था और जो 13 साल का था उसका दाहिने पैर का अंगूठा फटा था। जब उसका फटा
अंगूठा देखा तो बहुत गुस्सा आ रहा था, ये लोग इंसान हैं या जानवर। कैसे
इनको मासूम बच्चे नही दिखते! अगर इन्होंने चोरी भी की है तो ये पुलिस का
मामला है इस तरह मारना कहाँ तक सही है।
मैं
अभी उन बच्चों से बात ही कर रहा तभी कुछ औरतें जो वहाँ खड़ी थीं, फिर बोलना
शुरू कर दीं, मुझसे भी रहा नहीं गया और उनके पास जाकर बोला कि जरा सोचिए!
क्या आपके बच्चे का जन्म किसी ऐसे घर मे हुआ होता जहाँ उनको जो सुविधाएं आप
अभी मुहैया करा रही हैं वो नहीं मिलतीं और वो उन्हीं गंदी बस्तियों में
रहता होता जहाँ पर ये बच्चे रहते हैं तो क्या तब भी आपके जो अभी बच्चे हैं
उनकी जो स्थिति है वो होती? क्या आप ये नहीं मानतीं की आर्थिक और सामाजिक
स्थितियां सभी क्रियाओं के लिए जिम्मेदार होती हैं ? ये सब बातें सुनने के
बाद उनकी इंसानियत थोड़ी जागी लेकिन फिर भी उनको छोड़ने के पक्ष में कोई नहीं
हुआ। अंततः बहुत कोशिशों के बाद भी वो लोग उनको तबतक छोड़ने को तैयार नही
हुए जब तक उनके माँ- बाप आकर वहाँ अपनी बात नहीं रखे।
मुझे
भी कम्पनी से बार-बार फोन आ रहा था। अब उदास और निराश होकर वहाँ से निकलना
ही पड़ा क्योंकि मैं वहाँ रुक कर भी कुछ नहीं कर पाता ये बात मुझे उतने ही
समय में पता चल गया था।
दिन-प्रतिदिन
की बढ़ती असमानताओं ने देश को कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। ये बढ़ती
असमानताएं देश की सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही हैं। आज के युवा वर्ग की ये
प्रमुख जिम्मेदारी बनती है कि इस बढ़ती असमानताओं पर सोचे और मिलकर इसे खत्म
करें। आज के समय में तो ऐसी असमानता है कि कोई खा-खा कर मरे जा रहा, कोई
खाने के बिना मर रहा है, कोई खाने के लिए दिन भर चलता है, कोई पचाने के लिए
चलता है।
क्यों हम लोग ये नहीं सोचते कि एक बच्चा जो
झुग्गियों में पला-बढ़ा है, स्कूल के कभी दर्शन नहीं हुए, सामाजिक भेद-भाव
अलग से झेला है, खुद मेहनत करता है तो खाता है, वो बहुत अच्छा करेगा ऐसी
उमीद क्यों? आज उसने चोरी किया हो या ना किया हो लेकिन जो कष्ट और सामाजिक
प्रताड़ना झेल रहा है उसे भूल पाएगा? एक तथाकथित सभ्य समाज को देखने का उनका
नजरिया क्या होगा? ये वो सवाल थे जो ये सब देख कर मेरे अंदर उठे। इसी देश
में नेताओं और मंत्रियों को चाय भत्ता 15 से 30 हजार मासिक दिया जाता है
और इसी देश में कोई बच्चा 30 रुपये जमा करने के लिए कूड़ा बीनता है। हम कैसे
राष्ट्र का निर्माण करेंगे इन असमानताओं के बीच! किसी ने सच कहा है कि अगर
किसी राज्य में कोई रोटी के लिए चोरी करता है तो चोर के नहीं राजा के हाथ
काटे जाने चाहिए।
मैं कुछ
कर नहीं पाया इसका दुःख तो हुआ लेकिन ऐसी कितनी घटनाएं रोज होती होंगी
सोचने लगा, और यही सब सोचते हुए ड्यूटी पहुँच गया। वहाँ पहुँचने के बाद भी
मैं पूरा दिन उन्हीं के बारे में सोचता रहा। इन्हीं सब के बीच भगतसिंह की
कही वो बात याद आ गयी जो उन्होंने निचली अदालत में जज के एक सवाल पर दिया
था।
निचली अदालत में एक बार उनसे सवाल हुआ- क्या है क्रांति?
इसी सवाल के जबाब में उन्होंने कहा था।
भयानक असमानता और जबर्दस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी
उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती।
स्पष्ट
है कि आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियां
मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ो शोषित लोग एक भयानक खड्डे
की कगार पर चल रहें हैं।
इसी असमानता, गैरबराबरी और हर तरह के शोषण के खात्मे को भगतसिंह ने क्रांति का असली मतलब कहा था।
पूरे
देश में ऐसी जाने कितनी घटनाएं प्रतिदिन होती होंगी ये सोचकर ही मन दहल
जाता है। आज जरूरत है भगतसिंह के विचारों पर चलते हुए नए और समानता युक्त
समाज की स्थापना करने की। समाज के हर तबके तक समान शिक्षा व चिकित्सा और
रोजगार की व्यवस्था मुहैया कराने की। आज हम युवाओं को ही पहल करने की जरूरत
है। कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।
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