समाज और परिवार अगर स्वतंत्र प्रेम की इजाजत नहीं देता तो उससे
लड़ना आपकी च्वाइस नहीं मज़बूरी होती है। मालिनी अवस्थी जी के अनुसार प्रेम
करना गलत नहीं है, बस घर- परिवार की इज्जत सरेआम मत उछालो। वाह, क्या नेक
खयाल हैं, पर मालिनी जी अगर प्रेम करने की आज़ादी को घर की इज्जत के नाम पर
पैरों तले कुचला जाता हो तब क्या करें?
✍🏼 नितेश शुक्ला
पिछले
4-5 दिनों से यह बात सुनने में आ रही है कि बरेली के विधायक राजेश मिश्रा
उर्फ पप्पू भरतोल की बेटी साक्षी का पार्टनर चयन सही नहीं है, ऐसी बेटी
भगवान किसी को न दे, वो अपने घर वालों की बदनामी क्यों कर रही है इत्यादि।
लोक गायिका मालिनी अवस्थी जिनके पति सीएम योगी आदित्यनाथ के मुख्य सचिव हैं
उन्होंने तो साक्षी के बहाने लड़कियों को यह सलाह तक दे डाली कि प्रेम करना
गलत नहीं है पर प्रेम को पाने के लिए अपने पिता की सरेआम इज्जत उछालना गलत
है। मध्यप्रदेश के बीजेपी नेता गोपाल भार्गव ने तो यहां तक कह दिया कि ऐसी
खबरों को देखकर लोग कन्या भ्रूणहत्या कराने लगेंगे। खुद को प्रगतिशील कहने
वाले कई लोग भी साक्षी के परिवार की इज्जत मीडिया में उछलने के कारण पीड़ित
परिवार के साथ सहानुभुति दिखा रहे हैं कि साक्षी को ऐसा नहीं करना था।
ऐसे
लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रेम की स्वतंत्रता को ही रोकना
चाहते हैं। समाज और परिवार अगर स्वतंत्र प्रेम की इजाजत नहीं देता तो उससे
लड़ना आपकी च्वाइस नहीं मज़बूरी होती है। मालिनी अवस्थी जी के अनुसार प्रेम
करना गलत नहीं है, बस घर- परिवार की इज्जत सरेआम मत उछालो। वाह, क्या नेक
खयाल हैं, पर मालिनी जी अगर प्रेम करने की आज़ादी को घर की इज्जत के नाम पर
पैरों तले कुचला जाता हो तब क्या करें? आज साक्षी की उसके पति समेत हत्या
हो गयी होती जैसा कि अक्सर सुनने में आता है तब मालिनी जी किसको सलाह दे
रही होतीं? फिलहाल तो साक्षी का परिवार विक्टिम बन गया है क्योंकि खबर
राष्ट्रीय मीडिया में आने के बाद मामला उनके हाथ से निकल गया है, पर ऐसे ही
परिवार जब अपने बेटे बेटियों की हत्या कर देते हैं तब उनका प्यार कहाँ
होता है? मालिनी जी, हर नई चीज के सृजन में संघर्ष और दर्द एक अनिवार्य चीज़
होती है। बच्चा पैदा होता है तो मां को दर्द होता है, वैसे ही समाज आज
पुराने जातिवादी, रूढ़िवादी और सामंती जकड़न को तोड़कर आगे बढ़ेगा और नए समाज
का सृजन होगा तो ऐसे में उन लोगों को कष्ट होगा ही जो उन पुरानी मूल्यों
मान्यताओं को ढो रहे हैं। एक बेटा अगर बाप के खिलाफ जाकर दहेज के बिना शादी
करता है तो भी उसके दहेज प्रेमी बाप को कष्ट होता है, उसके सपनों पर पानी
फिर जाता है कि इतना पाल-पोस के बड़ा किया और ये बात ही नहीं सुन रहा है ।
तो क्या आप यहां भी पीड़ित बाप के साथ खड़ी होंगी? इसीप्रकार साक्षी के
स्वतंत्र निर्णय से उसके परिवार को कष्ट होना स्वाभाविक है पर इसका कारण
साक्षी का प्रेम करना नहीं बल्कि खुद उनका रूढ़िवादी विचारों का वाहक होना
है। अगर उन्होंने अपनी लड़की को स्वतंत्रता से प्रेम करने की आज़ादी दी होती
तो ये नौबत ही नहीं आती। परिवार की सरेआम बेइज्जती.... ये परिवार की इज्जत
मापने के पैमाना क्या है? अप्रैल 2016 में कर्नाटक के मंड्या में एक लड़की
को उसके पिता और चाचा ने इसलिए मार दिया कि वो नीची जाति के एक लड़के से
प्यार करती थी, मई 2016 में कर्नाटक के कोलार में एक 17 साल की लड़की को
उसके पिता ने नीची जाति के लड़के से रिश्ता तोड़ने को कहा जब लड़की नहीं मानी
तब पिता ने उसकी हत्या कर दी, जुलाई 2016 में नवी मुंबई के एक उच्च जाति
की लड़की के परिवार वालों ने उसके 16 वर्षीय दलित प्रेमी की हत्या कर दी,
फरवरी 2018 में अंकित सक्सेना की उसकी मुस्लिम पार्टनर के परिवार द्वारा की
गई "सरेआम" हत्या को कौन नहीं जानता है, अगस्त 2018 में एक दलित लड़के
जिसने एक साल पहले एक मुस्लिम लड़की से शादी की थी, उसकी हत्या लड़की के भाई
ने कर दी, सितंबर 2018 में तेलंगाना के दलित लड़के प्रणय पेरुमल्ला को उसकी
ऊची जाति की पत्नी के सामने "सरेआम" काट दिया गया जिसकी राष्ट्रीय मीडिया
में काफी चर्चा भी हुई, आज से 6 दिन पहले गुजरात में एक दलित को उसकी उच्च
जाति की पत्नी के परिवार वालों द्वारा "सरेआम" काट दिया गया। मतलब सरेआम
हत्या कर दिया जाय तो चलेगा, इससे परिवार की इज्जत बनी रहेगी पर आप प्यार
करके सरेआम अगर सुरक्षा की मांग कर दो तो इससे परिवार की इज्जत सरेआम चली
जाती है। अगर ये सारे लोग भी समय से भाग लिए होते तो शायद ज़िंदा होते और मालिनी जी जैसे लोगों की लानतें ले रहे होते। दरअसल
मालिनी जैसे लोग स्वतंत्र प्रेम के ही खिलाफ हैं, इसीलिए प्रत्यक्ष बोलने
की बजाय अप्रत्यक्ष रूप से यही बात बोल रही हैं। असल मे इनका कहने का मतलब
यही है कि- आप प्रेम करिए पर घर वाले न मानें तो भागकर उनकी इज्जत मत
उछालिये, बल्कि वो जिसके साथ बांध दें उसको प्रेम करना सीख लीजिए चाहे वो
मारे, काटे या जलाए। मतलब कुल मिलाकर जो अरेंज मैरिज सिस्टम है उसीको चलने
दीजिये।
जहाँ तक बात
साक्षी के पार्टनर के सही न होने की है ये तय करना हमारा काम नहीं है की
साक्षी के लिए वो सही है या नहीं। साक्षी एक वयस्क है और वह एक ऐसे लड़के को
भी चुनती है जो आपकी नजरों में सही नहीं है तो भी ये उसकी आज़ादी है। वो
गलत पार्टनर चुनकर अपनी ज़िंदगी खराब भी कर रही तो भी ये उसका अधिकार है। एक
किस्सा सुना था कभी कि जब देश आजाद होने लगा तब अंग्रेजों ने गाँधीजी से
कहा कि हमारे बिना तुमलोग देश कैसे चलाओगे, भारत बर्बाद हो जाएगा। गाँधीजी
ने जबाब दिया हमें खुद को बर्बाद करने की भी आज़ादी चाहिए।
दूसरी
महत्वपूर्ण बात है कि अगर साक्षी को शादी के बाद लगता है कि उसका ये
पार्टनर सही नहीं है तो उसको भी इतनी हिम्मत रखनी चाहिए कि उससे अलग हो
सके। इसमें कुछ बुराई भी नहीं है। खराब वैवाहिक रिश्ते को जबरजस्ती उम्रभर
चलाना हमारे समाज में सफल शादी के तौर पर देखा जाता है। जिसमें अरेंज मैरिज
वाले जीत जाते हैं क्योंकि प्रेम विवाह के टूटने की दर ज्यादा होती है।
प्यार और सम्मान से रिक्त जीवनभर का रिश्ता असफल रिश्ता है जबकि प्यार और
सम्मान पर आधारित कुछ सालों का रिश्ता भी एक सफल रिश्ता कहा जायेगा। वास्तव
में रिश्ते का आधार केवल प्यार और सम्मान ही होना चाहिए। जिस रिश्ते में
ये दोनों नहीं हैं उसको घसीटकर दोनों की ज़िंदगी क्यों बर्बाद करना? इसके
साथ ही जितनी सहजता से समाज को दो लोगों को एक साथ रहने के निर्णय को
स्वीकार करना चाहिए उतनी ही सहजता से दो लोगों के एक दूसरे से अलग होने के
निर्णय को भी स्वीकार करना चाहिए। ज्यादातर अरेंज्ड मैरेज जीवनभर इसीलिए चल
पाते हैं कि औरत के पास अलग होने का अधिकार तो है पर अवसर नहीं है। एक
लड़की जो अपने अरेंज मैरिज से खुश नहीं है वो रिश्ता तोड़कर स्वतंत्र रहने के
बारे में सोच भी नहीं सकती, पहले तो वो आत्मनिर्भर नहीं है, दूसरे उसे पता
है कि अकेली स्वतंत्र औरतों को समाज किस नजरिये से देखता है। उसके पास
मायके जाने का विकल्प है क्या? आस पड़ोस के लोग क्या कहेंगे, घर की भाभियाँ
क्या कहेंगी ये सोचकर ही उनका मन मर जाता होगा। समाज उनको सहजता से स्वीकार
नहीं कर पाता इसीलिए या तो उसी वैवाहिक जीवन को अपनी नियति मानकर घुट घुट
कर जीवन गुजार देती है या फिर आत्महत्या कर लेती है। दूसरी तरफ प्रेम विवाह
में पहले से ही घर से विद्रोह करके आयी लड़कियों के लिए जो कि अपेक्षाकृत
ज्यादा पढ़ी लिखी और आत्मनिर्भर होती हैं , उनके लिए अपने नीरस रिश्ते से भी
विद्रोह करके बाहर निकलना अपेक्षाकृत आसान होता है। एकतरफ उम्रभर की घुटन
है, मौत है तो दूसरी तरफ विद्रोह है, संघर्ष है, आज़ादी है। इसीलिए अरेंज
मैरिज की उम्रदराज घुटन से प्रेमविवाह का टूटना ज़्यादा बेहतर है।
आज
मुख्य सवाल ये भी है कि सामंती मूल्यों और पितृसत्ता की जकड़न से अगर
मुक्ति भी मिल जाये तो क्या ऐसे समाज में प्यार करना और उसे बनाये रखना
आसान है जिसके केंद्र में इंसान नहीं मुनाफा है? कार्ल मार्क्स ने कहा था
कि पूंजीवाद इंसानी रिश्तों से भावुकता का चादर हटाकर उनको कौड़ी-पाई के
हिसाब में बदल देता है। आज हर व्यक्ति यह देखकर ही मित्र-यार-रिश्तेदार
बनाता है कि इससे क्या फायदा होगा। इसीलिए इस मुनाफा आधारित समाज को बदलने
की लड़ाई में लगना आज सबसे बड़ी जरूरत है, ताकि लोग आपस में खोखले स्वार्थी
रिश्तों की बजाय सच्चे इंसानी रिश्ते बिना रुकावट के बना सकें।
👍
ReplyDelete