(2014 में नरेंद्र मोदी
की जो लहर पैदा की गई थी वो गुजरात मॉडल, काला धन, अच्छे दिन के सपने,
विकास पुरुष की छवि, 2 करोड़ रोजगार इनसब चीजों से बनी थी जिसके पीछे काफी
बड़ी संख्या में सेक्युलर लोग, पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियाँ और यहां तक कि
काफी हद तक अल्पसंख्यक भी खड़े हुए थे। ऐसी प्रचंड लहर में बीजेपी को 31%
वोट शेयर मिला था। 2019 में परिस्थितियाँ थोड़ी अलग थीं।)
✍🏼 इंक़लाब टीम
इसबार
लोकसभा चुनाव के काफी अप्रत्याशित परिणाम आये हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी
की जो लहर पैदा की गई थी वो गुजरात मॉडल, काला धन, अच्छे दिन के सपने,
विकास पुरुष की छवि, 2 करोड़ रोजगार इनसब चीजों से बनी थी जिसके पीछे काफी
बड़ी संख्या में सेक्युलर लोग, पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियाँ और यहां तक कि
काफी हद तक अल्पसंख्यक भी खड़े हुए थे। ऐसी प्रचंड लहर में बीजेपी को 31%
वोट शेयर मिला था। 2019 में परिस्थितियाँ थोड़ी अलग थीं। पिछले कार्यकाल में
अल्पसंख्यक और दलित विरोधी घटनाओं ने अल्पसंख्यकों के पूर्ण हिस्से और
दलितों के एक बड़े हिस्से को बीजेपी से दूर कर दिया था। देश का सेक्युलर,
प्रगतिशील और उदारपंथी तबका भी बीजेपी के खिलाफ खड़ा था, दूसरी तरफ विपक्षी
पार्टियों ने गठबंधन कायम किया था जिसका एक हद तक असर पड़ना ही था। ऐसे में
बीजेपी का वोट शेयर पिछली बार से भी बढ़ते हुए ऐतिहासिक रूप से 40% के पार
चला जाना पूरी चुनाव प्रक्रिया पर काफी गंभीर सवाल खड़ा करता है। इसीलिए इस
परिणाम को अप्रत्याशित कहा जाना चाहिए। अगर चुनाव में धांधली वाली बात
किनारे भी कर दें तो इस परिणाम से पता चलता है कि किस हद तक लोगों पर
अन्धराष्ट्रवाद, साम्प्रदायिकता और फेक प्रोपगंडा हावी रहा है। विपक्ष तो
लगभग धराशायी दिख रहा है। चुनावी वामपंथ सफाये के कगार पर पहुँच चुका है।
बीजेपी की जीत के संकेत तब मिलने लगे थे जब इस चुनाव में कॉरपोरेट चंदे का
92% बीजेपी को प्राप्त हुआ जबकि बाकी सारी पार्टियों को केवल 8% कॉरपोरेट
चंदा मिला। दूसरा कारण संघ का पूरी ताकत के साथ बीजेपी के प्रचार में लगना
था। कुछ समय पहले ऐसी खबरें आ रही थीं कि संघ मोदी-शाह जोड़ी से नाखुश है और
गडकरी को आगे करना चाहता है उसके बाद कई कयास लगाए जाते रहे। ऐसी खबरें भी
आयीं की संघ आज जिस तरीके से साम्प्रदायिकता विरोधी, फासीवाद विरोधी
आंदोलन का निशाना बन रहा था, राहुल गाँधी तक खुले मंचों से बीजेपी-आरएसएस
की राजनीति से देश को आज़ाद करने की बात करने लगे थे ऐसे में संघ ने किसी
भी सूरत में सरकार बदलने पर आने वाले खतरे की आशंका से प्रेरित हो पूरी
ताकत से बीजेपी को जिताने का निर्णय लिया है। जो भी हो संघ के ज़मीनी पकड़ और
काडर आधारित ढाँचे की पूरी ताकत बीजेपी के प्रचार में लगी थी। बीच में एक
खबर ये भी आई थी कि संघ ने कन्हैया कुमार को हराने के लिए 200 से ज्यादा
समर्पित कार्यकर्ताओं को बेगूसराय में उतारा है जो घर-घर जाकर जनेऊ की
सौगंध दे रहे।
यह चुनाव
केंद्रीय चुनाव आयोग के ऐतिहासिक पक्षपात के लिए भी याद रखा जाएगा। यह
चुनाव ऐतिहासिक तिङकमों के लिए भी याद रखा जाएगा। हैदराबाद की एक फर्म ने
अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि केवल महाराष्ट्र में करीब 40 लाख वोटरों के
नाम वोटर लिस्ट से गायब हैं। इनमें 17 लाख दलित हैं और 10 लाख मुस्लिम हैं।
यूपी के चंदौली से एक खबर ये भी आई कि कुछ बीजेपी नेता दलित बस्ती में
पैसे बाँटकर चुनाव के एक दिन पहले ही उनकी उंगली में स्याही लगा चुके थे।
20 लाख ईवीएम गायब होने की बात भी अभी-अभी निकल कर आई है।
जैसे
भी हो, अब मोदी सरकार 2.0 बन रही है। देश के सेक्युलर, प्रगतिशील,
उदारवादी, वामपंथी लोगों को अगले 5 साल और कठिन संघर्षों के लिए तैयार रहना
होगा। यह चुनाव 2014 के विकास व अच्छे दिन के नारों की बजाय हिंदुत्व,
आतंकवाद और राष्ट्रवाद के मुद्दों पर ही लड़ा गया है, बीजेपी हिंदुत्व के
एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्लेटफार्म पहले ही तैयार कर चुकी है। अब यह काम
पिछलिबर के मुकाबले तेजी से होने वाला है। इस बार विरोधियों का और नंगा दमन
देखने को मिल सकता है। खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के कारण पहले से भी प्रचंड
बेरोजगारी, जनता के पैसे की लूट, सब्सिडी कटौती देखने को मिल सकती है। अगले
सालों में आर्थिक मंदी की वजह आम जनता की जरूरतें पूरी करने में असफल होने
के कारण ये सरकार साम्प्रदायिक और अंधराष्ट्रवादी एजेंडे को और हवा देगी।
प्रोपगंडा फिल्मों का सिलसिला आगे बढ़ेगा। किताबों और पाठ्यक्रम को बदल कर
संघी एजेंडे के अनुरूप बनाया जाएगा। इन सबके लिए भारतीय जनता को तैयार रहना
चाहिए।
इस बीच कुछ लोग
निराश हताश हो रहे हैं तो कुछ लोग जनता को कोस रहे हैं। जनता की चेतना तक
अगर फासीवादी-साम्प्रदायिक राजनीति ही पहुँची और क्रांतिकारी राजनीति नहीं
पहुँच पाई इसकी जिम्मेदार जनता नहीं है बल्कि वो लोग हैं जिनको पूरी ताकत
से वैकल्पिक राजनीति को लोगों तक पहुँचाना था। ये असफलता उनकी भी है। अब
निराश होने की बजाय सच्चाई को स्वीकार कर वर्तमान समय की चुनौती को स्वीकार
करने की जरूरत है। प्रगतिशील लोगों को आज जनता में लगातार काम करते रहना
चाहिए और जनता के असली मुद्दों पर सत्ता से सवाल करना जारी रखना चाहिए।
जल्द ही क्रूर आर्थिक हकीकत संघी प्रोपगंडा की चादर को बेधकर आम जनता के
सामने ठोस सच्चाई रख देगी। ऐसे में उनको फिर साम्प्रदायिक और
अंधराष्ट्रवादी प्रचारतंत्र से बचाने के लिए प्रगतिशील वर्गों को भी एक
क्रांतिकारी प्रचार तंत्र खड़ा करना होगा। ऐसी
सांस्कृतिक टोलियां बनाये जाने की जरूरत है जो मुहल्ले-मुहल्ले, गावँ-गावँ
जाकर सेक्युलर और क्रांतिकारी विचारों को फैलाने में मदद कर सकें। कन्हैया
कुमार, शेहला रशीद के "संविधान बचाओ" जैसे पॉपुलिस्ट लेकिन खोखले आंदोलन
के साथ खड़े होने की बजाय ज़मीनी संपर्क, ठोस जनाधार और प्रतिबद्ध काडर
आधारित रैडिकल फासीवाद विरोधी आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है। गाँवों से लेकर
शहरों के मुहल्लों के स्तर के जनसंगठनों को खड़ा करने की जरूरत है जो
प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के ढाँचे पर खड़ा हो। ज़मीनी स्तर पर संघी ब्रिगेड का
मुकाबला करने में जो सक्षम हो। इससे कम कुछ भी फासीवादी उभार को रोकने में
सक्षम नहीं होगा।
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