✍🏼नितेश शुक्ला
दिल्ली के साकेत की धूलभरी सड़क
पर मैं चल रहा हूँ। शाम धीरे-धीरे सरक रही है। नाली से निकाला गया कीचङ सड़क
पर ही रखा है। उससे काली-काली धारियाँ साँप जैसे निकलकर सड़क पर रेंग रही
हैं। मैं एक सँकरी गली में मुड़ता हूँ। एक तीन मंजिला इमारत में ग्राउंड
फ्लोर के रूम का ताला खोलता हूँ। रूम में एक शान्ति छाई रहती है जिसे मैं
भंग कर देता हूँ। सामने टेबल पर बैंक परीक्षा का गाइड रखा हुआ है। हैंगर पर
कुछ कपड़े टंगे हैं। कोने में पानी से भरा टब है जिसके बगल में कुछ जूठे
बर्तन जैसे मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। दीवार में बनी आलमारी में ऊपर के खाने
में किताबें रखी हैं , बीच के खाने में कपड़े ठुसे हुए हैं और नीचे कुछ
डिब्बों में आंटा , चावल और दाल वगैरह हैं। शाम ढल रही है और अब सब्जी लाने
जाना होगा। मोबाईल की घंटी बजती है, देखा तो माँ का फोन है। उस चिरपरिचित
आवाज़ में माँ पूछती है, कैसे हो बेटा? और मेरा रोज का जबाब - अच्छा हूँ।
गाँव की कोई बात सुनाती है, मेरी आँखें बंद होने लगती हैं और गाँव दिखने
लगता है। घर की ठंढी छाँह मन में दौड़ने लगती है। अच्छा था या बुरा था पर
बेफिक्री तो वहीं थी। फिर ऐसे सवाल पूछे जाते हैं जिनमें गलत उत्तर ही सही
जबाब होता है। मैं रोज के उन सवालों के जबाब 'ऑप्शन बी' देता रहता हूँ।
अपना ख़याल रखना , ठीक से खाना-पीना बोल के माँ फोन रख देती है।एक गहरी साँस
लेता हूँ फिर ,जैसे किसी से पीछा छुड़ा लिया। मैं चाहता हूँ बात जल्दी खत्म
हो, या न करनी पड़े बात , माँ से या किसी परिचित से। उन सवालों का सामना
नहीं करना चाहता जिनका उत्तर हमेशा ऑप्शन बी देना पड़ता है, जबकि सही उत्तर
कुछ और होता है। मैं इस शाम से डरता हूँ , ये मुझे अकेला कर देती है। इस
साल 12 फॉर्म भरे हैं , 4 की परीक्षा दे चुका हूँ, 5वां कल सुबह है।
कमरे की दीवारें तीन साल
से चुपचाप मुझे देख रही हैं। शाम 8 से 12 बजे रात तक मेरे साथ लाभ-हानि के
फॉर्मूले ये भी याद करती होंगी। 13 का घनमूल इनको भी याद हो शायद। 3 साल
से हर रोज गर्म चावल की खुशबू को इन्होंने भी चखा है। छत पे घूम रहे पंखे
ने तीन सालों में मेरे बराबर मेहनत की है।
अगला घंटा सब्जी लाने और खाना बनाने में गुजरता है। गरम-गरम भात और सब्जी खाते हुए खुद को सराहता हूँ। बाहर आकर इतना तो सीखा।
9 बज चुके हैं , अब
किताबों और नोट्स के पन्ने पलटते हुए समय भाग रहा है। रात की इस शांति में
पंखे की आवाज़ और बीच बीच मे पन्ने पलटने की आवाज़ ही आती रहती है। कल तक जो
फॉर्मूले याद लग रहे थे आज मुँह चिढ़ाते हुए दिख रहे हैं। सभी मोबाईल पेंसिल
हैं और सभी किताबें मेज हैं वाला सवाल दिमाग में और हुड़दंग मचा देता है।
जल्दी जल्दी फॉर्मूले दुहराकर सोना भी है।
अब 12 बज चुके हैं। बिस्तर
पर लेट गया हूँ पर नींद का ठिकाना नहीं है। पूरी दिल्ली सो रही है, कल सुबह
जब दिल्ली जगेगी , सड़कों पर गाड़ियां दौड़ेंगी तब मेरे हाथ में एक
प्रश्नपत्र होगा और दिमाग में जबरदस्त हलचल होगी। पिछली बार इस परीक्षा में
कटऑफ से 12 अंक कम मिले थे। इस बार पिछली बार से आधी भर्तियों के ही पद
निकले हैं जबकि पिछली बार से लगभग दुगुने लोग इस बार परीक्षा में बैठ रहे
हैं। थोड़ा डर सा लग रहा पर खुद को भरोसा दिलाता हूँ कि इस बार मेहनत भी तो
पिछली बार से ज्यादा की है।
1 बज गए पर नींद गायब है।
ढलती हुई रात मेरे आत्मविश्वास को और भी कमज़ोर कर रही है। आँखे बंद करने पर
कुछ भूतकाल की परछाईयाँ सामने आ जाती हैं। गणित की कमज़ोरी बचपन से रही
है। बाबूजी से बोला था ट्यूशन लगाने को पर पता था धान बेचकर किताबें खरीदी
जा रही हैं, कहाँ से पैसा आएगा। स्कूल की बकाया फीस के लिए मार खाने के डर
से स्कूल छोड़कर नहर के पुलिया पर भैंस चराने वालों के साथ समय गुजारा, फिर
भला कैसे गणित समझ में आती। इस बात पर हँसी भी आई कि बचपन में स्कूल में
खुद के मार खाने के लिए खुद ही डंडा तोड़ के लाना पड़ता था। ये सब
सोचते-सोचते आखिर नींद ने रहम कर दिया।
सुबह दूध वाले की आवाज़ से
नींद टूटी। बाहर पूरी दिल्ली जाग चुकी थी। ये सुबह रोज जैसी नहीं थी।
अलार्म कब बजा पता नहीं चला , उठने में ही देर हो चुकी थी। कुछ ऐसा था जो
परिस्थितियों को प्रतिकूल कर दे रहा था। चाय बनाने के लिए गैस चालू की तो
एक मिनट जल कर खतम हो गयी। सोचा तैयार होकर निकलता हूँ रास्ते में चाय
नाश्ता कर लूंगा। नहाने तैयार होने में 8 बज गये। साकेत से विश्वविद्यालय
जाना था, डेढ़ घंटे लगते। जल्दी जल्दी नोट्स की कॉपी और गाइड बैग में लेकर
निकल गया कि रास्ते मे पढ़ लूंगा। सड़क पर आया तो ऑटो वाला ही नहीं आ रहा था।
गुस्सा आने लगा कि आज क्यों नहीं आ रहा। मुझे नौकरी न मिले इसकी साजिश
पूरी दिल्ली करते हुए लग रही थी। थोड़ी देर में ऑटो मिल गयी और मैं मेट्रो
स्टेशन पहुच गया। मेट्रो में इतनी भीड़ थी कि खड़ा होकर भी पढ़ना मुश्किल था
और फिर मन बार बार समय पर पहुँचने के लिए विचलित हो रहा था। एक बार सारे
फॉर्मूलों को देख लेता तो ठीक से याद हो जाते। जैसे तैसे परीक्षा केंद्र
पहुच गया। लग रहा था जैसे किसी सैनिक को टूटे फूटे हथियारों के साथ लड़ने
मैदान में भेज दिया गया हो।
परीक्षा केंद्र पर परीक्षा
थोड़ी देर में शुरू होने को थी। एग्जाम हाल में सब अपने कंप्यूटर स्क्रीन
पर निगाहे लगाए बैठे थे। कुछ कुर्सियां अभी भी खाली थीं, कुछ लोग अपने बाजू
वालों से कानाफूसी वाली आवाज़ में बातें कर रहे थे। एक कंप्यूटर पर मेरा
नाम लिखा था। ये पूरा माहौल देख कर मेरे दिल की धड़कनें बढ़ चुकी थीं और
कॉन्फिडेंस विदाई ले रहा था। जल्दी से पहुँचकर मैं सीट पर बैठ गया। स्क्रीन
पर परीक्षा शुरू होने की उल्टी गिनती चल रही थी। 2 मिनट 33 सेकण्ड बचे थे।
अभी दिशा-निर्देश भी पढ़ने थे। जल्दी जल्दी उनपर नज़र दौड़ाई। नेगेटिव
मार्किंग भी थी, कुल 100 सवाल थे, सही पर 4 और गलत होने पर -1। उल्टी गिनती
अब जीरो पर पहुच रही थी और तभी परीक्षक ने लॉगिन करने को बोला। परीक्षा
शुरू हो चुकी थी।
माँ सरस्वती का नाम लेकर
लॉगिन किया, सवाल सामने थे। कुछ मिलते जुलते, कुछ भूल बिखरे से, कुछ बाउंस
मारते हुए, कुछ आसान से भी , कुछ उलझाने वाले, कुछ आसान से पर फार्मूला
दिमाग से नदारद था, कुछ सुलझे हुए पर उत्तर दो सही लग रहे थे, कुछ सीधे तो
कुछ टेढ़े। 20 मिनट गुजर चुके थे 15 सवाल पढ़े पर 6 ही हल हो पाए। समय भाग
रहा था। दिमाग मे भी जबरजस्त हलचल हो रही थी। आगे अंग्रेजी आने वाली थी
,उसमे तो और दिक्कत होगी। इन 50 एप्टीट्यूड के सवालों में अच्छा स्कोर करना
था। अगले 15 सवाल भी गुजर गए जिनमें 7 हल हो पाए। 20 सवाल बचे थे। अब फिर
दौर शुरू हुआ डिडक्टिव रीजनिंग का। सभी आदमी पेड़ हैं , कुछ पेड़ बकरियाँ
हैं। रमेश रिया से छोटा है पर मोहन से बड़ा है। रिया दीप्ती से बड़ी है जो
खुद राजू से बड़ी है। ये सब सवाल सही हल हुए या नहीं पता नहीं। एप्टीट्यूड
अब खत्म हो चुका था और 50 में 23 सवाल हल हुए थे। अंग्रेजी का दौर
अंग्रेजों को गाली देते हुए गुजरने लगा। sarcasm, criticism के ज्यादा करीब
है कि taunt के, इनके बीच की करीबी में परीक्षक को इतनी रुचि क्यों है?
पूरा पेपर बीतने पर भी 100 में
से 39 प्रश्न ही हल हुए। इतने में तो कुछ नही होना था। 2 घंटे से ज्यादा
हो चुके थे। अब कई बातें जेहन में तैरने लगीं। सुबह पढ़ पाया होता तो शायद
और सवाल हल हो जाते। इसबार का पेपर ही कठिन बना है शायद, या क्या पता मुझे
ही कठिन लग रहा हो, बाकी सब तो सवाल हल करने में व्यस्त हैं। इसबार भी
सेलेक्शन मुश्किल है। बाबूजी पूछेंगे हुआ कि नहीं और बिना पूरा उत्तर सुने
बाहर चले जायेंगे। मौसा जी हँसते हुए फिर पूछेंगे जॉब लगी कि नहीं। गाँव के
पुरनिये पीछे से बोलेंगे की सभे ऑफीसरे थोड़े न बन जाईं। समझ नहीं आ रहा था
कि खुद को कोसूं या किसी और को। इसबार तो पिछली बार से आधे पदों की भर्ती
ही निकली है ,ऊपर से परीक्षा देने वाले लोग दुगुने हो गए हैं। कल अख़बार में
देखा कि सरकार 5 साल से खाली पड़े 5 लाख पदों को समाप्त करेगी। और एक बयान
भी कि रोजगार नहीं तो सड़क के किनारे पकौड़े बेचो। एक गुस्सा उमड़ा अंदर, इस
सरकार के लिए दोस्तों से बहस किया, गाँव में लोगों से वोट मांगे ,
फ़ेसबुक-वाट्सएप्प पर पोस्ट लिख-लिखकर लोगों से झगड़ा किया कि इनको मौका तो
दो, देखना हम एक दिन नए उज्ज्वल भारत का चेहरा देखेंगे। अंधेरे में एक
उम्मीद की किरण देखी थी हमनें इस सरकार में पर अब लगा कि जैसे मैं एक ऐसी
चीज था जिसे इस्तेमाल करके कचरे में फेंक दिया गया हो, जैसे एक गरीब को
महलों के सपने दिखाकर उसकी झोपड़ी ले ली गयी हो। जिस पार्टी ने विकास,
रोजगार, भ्रष्टाचार, कालाधन के नाम पर वोट लिया था अब राम मंदिर,
पाकिस्तान, धर्मरक्षा, गोरक्षा की रट लगा रही है। इस नए भारत में झूठों की, फेक ख़बरों की बाढ़ आयी है। सोचा कि अगर गलत उत्तर लिखने से हमारे नंबर काट लिए जाते हैं और हम फेल हो जाते हैं तो इन नेताओं द्वारा इतना झूठ बोलने पर कुछ क्यों नहीं होता? क्या जनता के पास चार विकल्पों में एक सही विकल्प मौजूद है? या चार चोरों में से एक को चुनना ही है? सिर को झटक दिया, मैं
एग्जाम हॉल में था। परीक्षा खत्म होने में 5 मिनट थे। अब लगने लगा कि और
सवाल तो करना ही पड़ेगा। कटऑफ तो ऐसे भी क्लियर नहीं होना है। मैंने खुद से
कहा, कहने दो सालों को तुक्केबाज और कंप्यूटर पर बचे हुए अगले हर सवाल का
एक ही जबाब देने लगा, 'ऑप्शन बी'।
बहुत ही मार्मिक लेख
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