✍🏼 राघवेन्द्र तिवारी
आज
से चार साल पहले केन्द्र सरकार ने बड़े तामझाम से एक आयोजन किया था, नाम
दिया गया – “स्वच्छ भारत अभियान”। सबने झाड़ू उठा लिया – नेता, अभिनेता,
अफ़सर कोई नहीं बचा, सबने सफ़ाई करते हुए अपनी फोटुवे खिंचवाई और सोशल
मीडिया पर डालीं, तब जाके झाड़ू को भी अपनी वैल्यू का अहसास हुआ। इतने
बड़े-बड़े लोगों के हाथों में ख़ुद को देखकर वह फूली नहीं समा रही थी।
सफ़ाई
को प्राथमिकता देने की यह शुरुआत उसे बहुत अच्छी लग रही थी, इसे देख
सफ़ाईकर्मियों को भी गर्व महसूस हुआ कि जो लोग अभी तक हमें हीन भावना से
देखते थे, कम-से-कम अब उस काम का महत्व तो समझे। लेकिन किसे मालूम था कि ये
सब बस कुछ पल के लिए एक झोंके की तरह आया है और चला जायेगा, किसे मालूम था
कि सफ़ाई का ये उत्सव राष्ट्रीय नौटंकी साबित होगा। लोगों को ज़्यादा
इन्तज़ार नहीं करना पड़ा। अभियान की शुरुआत में ही जो लोगों को दिखा उसने इस
सफ़ाई अभियान की पोल खोल दी। हुआ यूँ कि साफ़ जगह पे पहले कूड़े का आॅर्डर
देके कूड़ा फैलाया जाता और फिर लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियों से आते और उन साफ़ जगहों
पर फैलाई गयी गन्दगी को झाड़ू लगाते और ये सब कैमरे के सामने किया गया,
ताकि इसे सालों तक दिखाया जा सके। शुरू-शुरू में झाड़ू को बहुत ख़ुशी हो रही
थी, यही तो वो चाहती थी कि सफ़ाई का काम समाज के एक तबक़े तक सीमित न रखा
जाये, सभी लोग इसे अपना काम समझें। पर झाड़ू की ख़ुशी टिक नहीं पायी, दूसरे
दिन उसे अन्धेरे कमरों में क़ैद कर दिया गया, समाज के उसी तबक़े के हाथों
में वापस थमा दिया गया, जिसकी पीढि़याँ सफ़ाई करने के लिए ही अभिशप्त थी।
सब कुछ बदल गया था, कल जो लोग उसको बड़े प्यार से हाथों में लिए खड़े थे, आज
उसे देखना भी नहीं चाह रहे थे, कल जो लोग उसके साथ फ़ोटो खिंचवा रहे थे, आज
उससे दूर भाग रहे थे। सफ़ाईकर्मियों को फिर जहालत और अकेलेपन के अन्धेरे
में धकेल दिया गया।
उसके
बाद से हर 2 अक्टूबर को यही कहानी पिछले कई सालों से चली आ रही है, अब तो
ये फि़क्स डिपोजिट की तरह हो गया है, जो एक नियमित समय पर रिनियुल किया
जाता है। हर 2 अक्टूबर को अब भी झाड़ू को अन्धेरे कमरों से बाहर निकाला जाता
है, पर अब वो उत्साहित नहीं होती, उसे पता है कि उसकी जगह किन हाथों में
है।
झाड़ू सोचती है कि ये
धोखे का खेल है जिसकी शिकार केवल वह ख़ुद नहीं है, बल्कि पूरी जनता है
जिसके सामने ये नौटंकी परोसी जाती है, हर वो सफ़ाईकर्मी भी है जिसकी
तकलीफ़ें इस महानौटंकी के शोर के पीछे दब जाती हैं। झाड़ू ने अपने पूर्वजों
से सुन रखा है कि स्वच्छता दिखावा मात्र नहीं होना चाहिए, स्वच्छता हमारा
स्वभाव होना चाहिए, क्योंकि दिखावा वो लोग करते हैं जिनका मन ही साफ़ नहीं
है। झाड़ू उन सफ़ाईकर्मियों को देखती है, उनकी तकलीफ़ों को समझती है। वो ये
भी जानती है कि पूरे समाज की सफ़ाई का दारोमदार इन्हीं के कन्धे पे है, पर
उनको ना तो ये समाज बराबर का सम्मान देता है, ना आधुनिक मशीनें और ना ही
समय से तनख्वाह। झाड़ू याद करती है कि 2015 में बनवारी लाल की मौत सिर्फ़
अपनी 4 महीने की सैलरी पाने के लिए अफ़सरों के चक्कर काट-काट के हो गयी,
जबकि उसके मरने के बाद भी 4 महीने की सैलरी उसको नहीं मिली। वो सोचती है कि
कम-से-कम स्वच्छता के नाम पर जो अभियान चल रहा है उसी के द्वारा उनको ये
सब सुविधाएँ दिला दी जातीं, तो इस तरह वे बेमौत नहीं मरते। असल में जो होना
चाहिए, वो किया नहीं जाता और जो हो रहा है उससे तो कुछ बदलता नहीं, चाहे
गंगा की सफ़ाई हो या खुले में शौच हो या शहरो में कूड़े और नालों की सफ़ाई
हो। स्वच्छता के नाम पे साफ़-सुथरी जगह पे झाड़ू चला लेने से इन्हें वोट मिल
जाते हैं और सफ़ाई के इस आयोजन के शोर में सीवर की सफ़ाई के दौरान होने
वाली मौतों की चीख़ें दब जाती हैं। पिछले 5 सालों में (25 मार्च 2013 से 25
मार्च 2018 तक) 877 सफ़ाईकर्मियों की मौत हुई, जिसकी गवाह झाड़ू रही है।
उसने तो सैकड़ों और मौतें देखी हैं, जिनका कभी हिसाब ही नहीं किया गया,
क्योंकि मेन होल की सफ़ाई के लिए ठेके पे ही कर्मचारी रखे जाते हैं जिनका
नगर निगम के पास कोई आँकड़ा नहीं होता है, उनकी मौत तो गिनती में बहुत कम आ
पाती है। सीवर में हाइड्रोजन सल्फ़ाइड गैस पायी जाती है जो अगर अधिक मात्रा
में हो तो एक बार साँस लेने में ही मौत हो जाती है और जब इस तरह की मौत
होती है तो एक साथ ग्रुप में होती है, क्योंकि जब अन्दर एक की मौत हो जाती
है और वो बाहर नहीं आता तो दूसरा जाता है उसे देखने, वो भी नहीं आता तो
तीसरा जाता है और इस प्रकार एक साथ कई लोग मर जाते हैं।
एक
रिपोर्ट 9 मार्च 2016 की है, जिसके हिसाब से 22000 लोगो की मौत हर साल
हमारे देश में हो जाती है। जिन मौतों को रोकना इस समाज की पहली प्राथमिकता
होनी चाहिए, उसके बजाय कुछ और ही किया जाता है। 80% सफ़ाईकर्मियों की मौत
रिटायरमेण्ट के पहले होना सफ़ाई अभियान का जो झुनझुना बजाया जा रहा है,
उसकी पोल खोलती है, जिस देश में करोड़ों रुपये सफ़ाई के प्रचार में, घण्टों
टीवी डिबेट में और बैनर-पोस्टर में बर्बाद किये जाते हों, जहाँ
नेता-अभिनेता सभी इसकी अगुवाई करते हो, वहाँ ये मौतें झाड़ू को ये सोचने पे
मजबूर करती है कि यह समाज कहाँ जा रहा है।
मज़दूर बिगुल से साभार
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